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माधव

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अभिमन्यु इस रण का हूं मैं विजेता आगामी क्षण का हूं मैं उम्र  इतनी भी बड़ी नही है पर जिम्मेदारियां सामने बहुत खड़ी है देखकर दुखी स्वजनों को  अंतर्मन में तूफान उठते है पूंछता हूं तुमसे माधव क्यों कष्ट नहीं ये मिटते है देख सको तो देखो माधव जल रहे है ये सजल नयन विश्वविजेता बन जाने के सज रहे है इनमे असंख्य स्वप्न हे माधव तुम सब जानते हो शौर्य मेरा पहचानते हो तुम जानते हो मैं न लौटूंगा मृत्यु से शायद न जीतूंगा किंतु कंठहार बना करके विघ्नों की माला पहनूंगा माना तनु भी ये क्षीण होगा किंचित नहीं है भय मुझमें आत्मा मेरी अजर अमर है विजयी होने की है लय मुझमें श्याम मेघ तो आते जाते है पर इस चक्रव्यूह को मैं तोडूंगा देखना माधव हर एक प्रयास से इन शिलाओं को कैसे फोडूंगा विषम परिस्थितियों में रह कर भी ना अंतःकरण भयभीत हुआ माधव तुम्हारी शरण पाकर ये नश्वर शरीर निर्भीक हुआ है मन में उठी ललकार यही जो रुके एक पल भी पग कहीं तुम देखना मैं अंगद के पांव सा  लूंगा खुद को जड़मत वहीं माधव ये अभिमन्यु अब  एक पल के लिए भी रुकेगा नही नियति कितने ही प्रयत्न कर ले शीश मेरा ये झुकेगा नहीं अश्रु राशियों बनकर

ठंडी छांव

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अभी कुछ दिनों पहले की बात है जब मैं अपने गांव में रहा करता था इस शहर की चिलचिलाती धूप में नहीं पेड़ों की छांव में रहा करता था जब से आया हूं महानगर जीवन दुर्दांत हो गया है याद आते है वो पल जब दोस्तो के संग घर के आंगन में खेलता था और  मन शांत रहा करता था कितना भी भागा दौड़ी कर ले पर चेहरे पर तेज नितांत रहा करता था आ गया हूं जब यहां पर कुछ नोटों की चाह में बस दौड़ा करता हूं सुबह शाम एक अनजानी राह में भूख शायद लगती भी है पर पता कहां चलता है ये होटल की रोटियों से मन कहां भरता है याद आता है वो खुली छत पर सब का साथ में बैठ कर खाना मां का कहानियां सुनाना और फिर सुनते सुनते ही सो जाना कहां दिखते है यहां वो खेत वो खलिहान यहां तो दिखते है बस भागते हुए इंसान ये उन दिनों की बात है जब मैं अपने गांव में रहा करता था इक छोटे से कमरे में नही मां पापा की छांव में रहा करता था दोस्तो के संग जहां हम नहरों में नहाया करते थे जहां भीगते सावन में भी संग साइकिल चलाया करते थे यहां तो गाड़ियों की भरमार लगी है दोस्त नहीं है यहां किराए के ड्राइवरों की कतार लगी है लौटता हूं शाम को जब तो कुछ नोट कमाकर लाता

शूतपुत्र

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कुछ सीखें महाभारत के कर्ण से शूद्र कुल में बड़ा हुआ जो था क्षत्रिय वर्ण से महाक्रोधी दुर्वासा के वरदान का वो अंश था जीता रहा अभावों में  पर पांडु उसका वंश था गुरु द्रोण ने जब अपमानित किया उसे शूत पुत्र कहकर सारी विद्याएं सीख ली उसने परशुराम के आश्रय में रहकर धर्मराज के धर्म से बड़ा कर्ण का दान धर्म था धर्मराज का था वो सहोदर स्वभाव से अति विनम्र था दुनिया ने उसको शत्रु माना पर वो किंचित नहीं भयभीत था कृष्ण भी जिसका आदर करते वो कर्ण इतना विनीत था महाबली वो, वो महाधनुर्धर वो महादानी था अर्जुन से उसकी तुलना क्या जो अपने मद में अभिमानी था शास्त्र विद्या में निपुण वो सूतपुत्र  धनुर्विद्या का स्वामी था रह रहा था कौरवों में पर  कर्ण सदैव सुगामी था Read My thoughts on -  Youtube - sarthakkavi07 Instagram- sarthakkavi07 facebook page - सार्थक कवि yourquote - sarthakkavi Fpllow & Subsscribe & Like if you Like

एकाकीपन

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कितनी धाराएं निकल गई  मेरे इस कुंठित जीवन से मैं दृग हिमालय बना रहा अविचलित सा तपोवन में तुम स्वतंत्र कोकिला बन कर के विचरते हो अब नभ में मैं भी गुंजायमान रहा अपने ही एकाकीपन मे तुम खिलखिला कर हंसती हो अपने ही घर के आंगन में मैं पीछे देख खुश हो लेता हूं  अपने ही सूनेपन में तुम प्रतिदिन पूनम सा निखर रही ये सोचता हूं अंतर्मन में मैं राहु काल के निशाकर सा घट रहा हूं प्रतिदिन जीवन में उद्वेलित हो तुमने छोड़ा था जाने कौन सी उलझनों में देखो तब से ही भटक रहा लेकर अश्रु इन नयनों में Read My thoughts on -  Youtube - sarthakkavi07 Instagram- sarthakkavi07 facebook page - सार्थक कवि yourquote - sarthakkavi Fpllow & Subsscribe & Like if you Like

लोकलाज़

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  लोकलाज़ नन्ही चिड़िया पंखों को खोलो उड़ना सीखो अंबर को छू लो है कौन सी जंजीर जो तुमको बांधे है कौन किनारा जो समुद्र को साधे यहां न जाना वहां न जाना ये न करना वो ना करना घुटघुट कर जीती रहना चुपचाप सब सहती रहना कोई छुए तो कुछ न कहना इज्जत ही है बस तुम्हारा गहना क्यों हमेशा तुमको चुप है रहना गलत बात को कभी न सहना हर बात पर तुमको टोंकने वाले इन गिद्धों को भी तो दिखाना है अपना रास्ता खुद ही बनाना है लोकलाज से तुम मत डरना मस्त मगन हो उड़ते रहना मत रुकना किसी मनोरम वन में न फंसना प्रेम की भटकन में बस उड़ते रहना जीवन में और विश्वास रखना अपने मन में अंबर से भी ऊंचे जाना है कुछ करके भी तो दिखाना है मन में हमेशा उल्लास रखना कुछ कर जाने की आस रखना देखो शाम ढली नही है मंजिल तुमको अभी मिली नही है नन्ही चिड़िया पंखों को खोलो उड़ना सीखो अंबर को छू लो Read My thoughts on -  Youtube - sarthakkavi07 Instagram- sarthakkavi07 facebook page - सार्थक कवि yourquote - sarthakkavi Fpllow & Subsscribe & Like if you Like

अंतर्मन की उड़ान

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अंतर्मन की उड़ान आज एक चिड़िया देखी अनजान दुनिया के शोर से अपनी ही चहचहाहट में मस्त पत्तियों से बाते करते आसमान में गाना गाते लगा जैसे दुनिया में रंग भरने की कोशिश  करती हो अपने पंखों से निकली दौरे पर जिंदगी के  और उलझ गई इन मस्त हवाओं में वो चहचहाना भूल गई वो गाना भी भूल गई बहने लगी उन हवाओं में हवाओं के साथ और फिर वीराने में कही फंस गई जहां देखती सब सूनापन है खाली खाली सा अंतर्मन है सब भूल चुकी वो कैसी थी पल भर में मोह ले ऐसी थी रंग बिरंगे पुष्पों की वो तो फुलवारी की क्यारी जैसी थी अब जब गिरी प्रेम के उपवन में उलझी उलझी है जीवन में  समझौतों के रिश्तों में  भावनाओं का धागा लिए हांथ में बंध रही है बंधन में सब कुछ है कहने को  फिर भी सूनापन है शून्य से भी शून्य उसका अंतर्मन है गिर कर उठी अब खोले है पंख फिर से उड़ना सीख रही है बिखरी यादों को संजोकर फिर से कूंकना सीख रही है आसमान की तर्ज है खाली उसकी अभी उड़ान है बाकी सात समंदरपार है करने पंखों में हौंसले समेट रही है समझ चुकी है जीवन को समझा चुकी वो अपने मन को पिंजरे में कैद रहना नहीं है अब इन मस्त हवाओं में बहना नही है लड़ना है तूफानों से

श्राप

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  हुई सुबह प्रभातफेरी अरुण लघिमा लग रही सुनहरी आंगन में कहीं एक स्त्री जगी थी आज की पुत्री - बहन कल की जननी जगी थी श्रृष्टि सृजन का आधार सा दिखी वो संपूर्ण परिवार सी दिखी अतृप्ति से संचित दिखी जागी अवस्था में मूर्छित दिखी आंगन बहारते उसको देखा सब कुछ संभालते उसको देखा कुछ माह के गर्भ से थी वो पर नागों के दंभ में थी वो पिता ने ब्याही थी मानवों में पर जी रही थी दानवों में दिखने में दुर्बल नारी थी स्वजनों से ही हारी थी वो उसको लड़का ही जनना था उसे तीजी बार मां बनना था दो पुत्रियां थीं पुलकित हर्ष सी थी परमात्मा का स्पर्श सी आंगन की जो माया थी उसी परिवार की छाया थी पर चाह थी सबको वंश बढ़ाने की चिताओं में आग लगाने की चाह थी सबको पुत्र की परवाह थी कुल गोत्र को वो भूल गए त्याग समर्पण को एक जननी के जीवन अर्पण को कुछ समय बाद जब वापिस आया उस आंगन में न उसको पाया हृदय थोड़ा सा विचलित हुआ संदेह मुझको किंचित हुआ वो विदा हो चली पुत्र जानने में ये सुनकर मैं भयभीत हुआ पर वो जा चुकी थी अंबर में समा चुकी थी अग्नि भंवर में अब वो परे थी प्रत्येक चिंतन से मुक्त हो चुकी थी इस जीवन से सारा जीवन बीता लिए अश्र

आघात

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  आघात शाम अभी ढली नही थी                                                              अंबर पर निशा चढ़ी नहीं थी सूरज का अभी पहरा था अंधेरा भी न इतना गहरा था कहीं से मैं भी आ रहा था मन में कुछ गुनगुना रहा था रास्ते में एक गुड़िया देखी जैसे प्रेम की पुड़िया देखी  नन्ही कली की मुस्कान देखी  आंखो ने जैसे दुनिया जहान देखी पांच साल की बच्ची थी वो  पर अपनी उम्र से से भी कच्ची थी वो मुझको देख वो तनिक मुस्कायी फिर कुछ मन में तुतलायी उसकी आंखों में हर्ष देखा परमात्मा का स्पर्श देखा मैं जल्दी में था तो निकल गया बस वही से सब कुछ फिसल गया मैं निकल गया जज्बात में वही था एक सुअर घात में सामने वो आ गया सुनहरे सपने को वो खा गया नन्ही आवाज में वो चिल्ला न सकी मुंह दबा दिया उसने उसका भैया मुझको वो बुला ना सकी हे कृष्ण ये क्या हो गया आज दुर्योधन भी घबरा गया नोच लिया उस बच्ची को  एक सुनहरा भविष्य वो खा गया अगले प्रभात जब आंखे खोली इधर उधर की खबर टटोली सुनने में आया लाश मिली है किसी मां बाप की आस मरी है उसको मैं भी देखने पहुंचा आंखो से पर ये देख न सका एक पल वहां पर ठहर न सका घबराया हुआ घर को आया सबसे पहले