श्राप

 


हुई सुबह प्रभातफेरी

अरुण लघिमा लग रही सुनहरी

आंगन में कहीं एक स्त्री जगी थी

आज की पुत्री - बहन

कल की जननी जगी थी

श्रृष्टि सृजन का आधार सा दिखी

वो संपूर्ण परिवार सी दिखी

अतृप्ति से संचित दिखी

जागी अवस्था में मूर्छित दिखी

आंगन बहारते उसको देखा

सब कुछ संभालते उसको देखा

कुछ माह के गर्भ से थी वो

पर नागों के दंभ में थी वो

पिता ने ब्याही थी मानवों में

पर जी रही थी दानवों में

दिखने में दुर्बल नारी थी

स्वजनों से ही हारी थी वो

उसको लड़का ही जनना था

उसे तीजी बार मां बनना था

दो पुत्रियां थीं पुलकित हर्ष सी

थी परमात्मा का स्पर्श सी

आंगन की जो माया थी

उसी परिवार की छाया थी

पर चाह थी सबको वंश बढ़ाने की

चिताओं में आग लगाने की

चाह थी सबको पुत्र की

परवाह थी कुल गोत्र को

वो भूल गए त्याग समर्पण को

एक जननी के जीवन अर्पण को

कुछ समय बाद जब वापिस आया

उस आंगन में न उसको पाया

हृदय थोड़ा सा विचलित हुआ

संदेह मुझको किंचित हुआ

वो विदा हो चली पुत्र जानने में

ये सुनकर मैं भयभीत हुआ

पर

वो जा चुकी थी अंबर में

समा चुकी थी अग्नि भंवर में

अब वो परे थी प्रत्येक चिंतन से

मुक्त हो चुकी थी इस जीवन से

सारा जीवन बीता लिए अश्रु नयन में

अब खुश थी परमात्मा के सुंदर भवन में


इधर


दो नन्ही कलियां रोती थी

किसी से कुछ न वो कहती थी

इस हृदय विदारक घटना को भी

अंदर ही अंदर सहती थी

हाय उनका श्राप लगेगा

न कुल में कोई कुलतरान बचेगा

दुर्गा के कोप से कौन बचा है

शिव शक्ति ने मिलकर ब्रम्हांड रचा है

पर दानवों को कौन समझायेगा

बिन शक्ति स्वरूप जग मिट जायेगा

हम कब समझेंगे वो नारी है

उसी से तो सृष्टि सारी है


कुछ समय बाद


नव विवाह की तैयारी थी

जाने अब किसकी बारी थी

पर दूजी भी तो नारी थी

सर्वस्व लुटाने वाली थी

पर इच्छा है वो काली हो

दंभ कुचलने वाली हो

जो सोचे उसको विलास वस्तु

उसको त्रिनेत्र से भस्म करने वाली हो


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