एकाकीपन
कितनी धाराएं निकल गई
मेरे इस कुंठित जीवन से
मैं दृग हिमालय बना रहा
अविचलित सा तपोवन में
तुम स्वतंत्र कोकिला बन कर के
विचरते हो अब नभ में
मैं भी गुंजायमान रहा
अपने ही एकाकीपन मे
तुम खिलखिला कर हंसती हो
अपने ही घर के आंगन में
मैं पीछे देख खुश हो लेता हूं
अपने ही सूनेपन में
तुम प्रतिदिन पूनम सा निखर रही
ये सोचता हूं अंतर्मन में
मैं राहु काल के निशाकर सा
घट रहा हूं प्रतिदिन जीवन में
उद्वेलित हो तुमने छोड़ा था
जाने कौन सी उलझनों में
देखो तब से ही भटक रहा
लेकर अश्रु इन नयनों में
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