अंतर्मन की उड़ान
अंतर्मन की उड़ान
आज एक चिड़िया देखी
अनजान दुनिया के शोर से
अपनी ही चहचहाहट में मस्त
पत्तियों से बाते करते
आसमान में गाना गाते
लगा जैसे दुनिया में
रंग भरने की कोशिश
करती हो अपने पंखों से
निकली दौरे पर जिंदगी के
और उलझ गई इन मस्त हवाओं में
वो चहचहाना भूल गई
वो गाना भी भूल गई
बहने लगी उन हवाओं में
हवाओं के साथ
और फिर वीराने में कही फंस गई
जहां देखती सब सूनापन है
खाली खाली सा अंतर्मन है
सब भूल चुकी वो कैसी थी
पल भर में मोह ले ऐसी थी
रंग बिरंगे पुष्पों की वो तो
फुलवारी की क्यारी जैसी थी
अब जब गिरी प्रेम के उपवन में
उलझी उलझी है जीवन में
समझौतों के रिश्तों में
भावनाओं का धागा लिए हांथ में
बंध रही है बंधन में
सब कुछ है कहने को
फिर भी सूनापन है
शून्य से भी शून्य उसका अंतर्मन है
गिर कर उठी अब खोले है पंख
फिर से उड़ना सीख रही है
बिखरी यादों को संजोकर
फिर से कूंकना सीख रही है
आसमान की तर्ज है खाली
उसकी अभी उड़ान है बाकी
सात समंदरपार है करने
पंखों में हौंसले समेट रही है
समझ चुकी है जीवन को
समझा चुकी वो अपने मन को
पिंजरे में कैद रहना नहीं है
अब इन मस्त हवाओं में बहना नही है
लड़ना है तूफानों से
नम आंखों से हंसना सीख रही है
वो जीवन जीना सीख रही है
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